"जब तक मेरा बेटा नहीं मिल जाता, मैं कहीं नहीं जा रही" - ये कहते हुए अमीना की आवाज़ निराशा के साथ भारी हो जाती है. वह पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर अफ़ग़ानिस्तान की ओर आ गई हैं.
लेकिन उनके पैर उस देश में आगे नहीं बढ़ रहे जहां क़रीब चार दशक पहले सोवियत आक्रमण के कारण उन्हें अपना आशियाना छोड़ना पड़ा था.
अमीना (बदला हुआ नाम) तीन दिन पहले ही अपनी बेटियों और उनके बच्चों के साथ यहां पहुंची हैं. हालांकि उनके तीनों बेटे उनके साथ नहीं आ सके.
उनका परिवार जब पाकिस्तान से रवाना होने वाला था, रावलपिंडी के उनके घर से उनके दोनों बेटों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया.
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उनके तीसरे बेटे को बॉर्डर पार करने से पहले ही पाकिस्तानी सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने हिरासत में ले लिया.
उस वक्त से ही अमीना और उनका परिवार पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच मुख्य बॉर्डर क्रॉसिंग तोरखम के पास ही अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ अस्थाई शेल्टर में रुका हुआ है.
अपने बेटों के इंतज़ार में अमीना हर सुबह उठकर क्रॉसिंग गेट पर जाती हैं. उनके लिए यह आसान नहीं हैं. उनकी उम्र 60 साल से अधिक है और वो रीढ़ में दिक्कतों से जूझ रही हैं. वो लंबे समय तक चल फिर या बैठ नहीं सकतीं.
पाकिस्तान उन लोगों को निकाल रहा है जो बिना वैध दस्तावेजों के देश में रह रहे थे या जिन्हें अस्थाई रूप से रहने की मंज़ूरी दी गई थी. अमीना इन दसियों हज़ारों लोगों में से एक हैं.
वहीं अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के अधिकारियों का कहना है कि हर दिन 700 से 800 परिवारों को अफ़ग़ानिस्तान भेजा जा रहा है और आने वाले महीनों में क़रीब 20 लाख लोगों को पड़ोसी पाकिस्तान से निकाला जाना है.
अमीना मुझसे कहती हैं, "मैं बीमार हूं, लेकिन क्या कर सकती हूं? हमारा मकान मालिक आया और बोला कि हमें घर खाली करना पड़ेगा, नहीं तो वह भी परेशानी में आ जाएगा. इसके बाद पुलिस आई और मेरे बेटों को ले गई. हम छिप गए. फिर हम जो कुछ भी साथ ला सकते थे, वो लेकर वहां से निकल आए."
उन्होंने बताया कि बॉर्डर पर उनके "एक और बेटे को पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने हिरासत में ले लिया." वो कहती हैं कि उनका बेटा अपने साथ परिवार का सारा सामान लेकर आ रहा था.
तोरखम क्रॉसिंग पर हताशा भरा नज़ारा है. पाकिस्तान और अफ़ग़ान सुरक्षा बलों की निगरानी में पुरुष और महिलाएं यहां अलग-अलग गेट से गुज़र रहे हैं. लोग एक ऐसे मुल्क में लौटने को लेकर निराश हैं जिसके बारे में बहुत से लोगों को ठीक से पता भी नहीं है.
इनमें से कुछ बुज़ुर्ग हैं. एक व्यक्ति को स्ट्रेचर पर लाया जा रहा है, एक अन्य को खाट पर.
छोटे बच्चे अपने माता-पिता या भाई-बहनों के साथ चल रहे हैं. एक अधिकारी अपने परिवार से बिछड़ गए दो लड़कों के नाम लाउडस्पीकर पर पुकार रहा है.
अमीना की तरह ही बहुत से लोग पाकिस्तान में सालों से रहते आए थे. लेकिन जबसे सरकार ने बिना दस्तावेज़ वाले नागरिकों को निकालने की अपनी समय सीमा को लागू करने में तेज़ी दिखानी शुरू की, इन लोगों की ज़िंदगी रातोंरात पलट गई है.
जिन लोगों से मैंने बात की उनमें से अधिकांश लोगों थकान, दुख और आक्रोश ज़ाहिर किया. चिलचिलाती धूप में सड़क किनारे बैठे एक शख़्स ने बताया कि उनके बच्चों ने पाकिस्तान में ही रुकने की मिन्नतें कीं क्योंकि वे यहीं पैदा हुए थे.
इन्हें पाकिस्तान में रुकने के लिए अस्थाई परमिट दिया गया था, जिसकी सीमा मार्च में समाप्त हो गई.
बार-बार दस्तावेज दिखाने और पुलिस पूछताछ से तंग उस व्यक्ति ने कहा, "अब हम कभी भी वापस नहीं जाएंगे. इसके बाद तो बिल्कुल नहीं, जैसा हमारे साथ बर्ताव हुआ है."
लगभग हर परिवार ने मुझे बाताया कि पाकिस्तानी बॉर्डर गॉर्ड्स सामान ले जाने पर रोक लगा रहे हैं, यह शिकायत कई मानवाधिकार संगठनों ने भी की है.
जब हमने पाकिस्तान के गृह मंत्री तलाल चौधरी से इस बारे में पूछा, तो उनका जवाब था, "अफ़ग़ान शरणार्थियों को अपने सामान साथ ले जाने से रोकने की हमारी कोई नीति नहीं है."
साथ ही ये भी कहा कि उन्होंने वाणिज्य मंत्रालय से कहा है कि "निर्यात के लिए प्रतिबंधित" सामान के अलावा लोगों को अपना सामान ले जाने की इजाज़त दी जाए.
अमीना को डर है कि जो कुछ सामान उनका बेटा ला रहा था वह एक रात पहले हुई बारिश में भीग गया होगा.
बॉर्डर क्रॉसिंग से एक किलोमीटर दूर नारंगी और सफ़ेद टेंटों का एक कैंप बना है जो वापस आने वालों का पहला ठिकाना है.
लोगों को सेना के ट्रकों में बैठाकर यहां लाया जा रहा है. यहां पर तालिबान सरकार और सहायता एजेंसियां लोगों को बुनियादी मदद मुहैया कर रही हैं.
जो लोग दूर दराज़ के प्रांतों से हैं उन्हें कई दिनों तक यहां रुकना पड़ रहा है और अपने इलाक़े की तरफ जानेवाली गाड़ी का इंतज़ार करना पड़ रहा है.
ये परिवार 30 डिग्री सेल्सियस तापमान में कैनवस के टेंट में रह रहे हैं. यहां गर्मियों में तापमान 50 डिग्री तक पहुंच जाता है.
यहां धूल का गु़बार लगातार उड़ रहा है और धूल आंखों और मुंह में आ रही है.
यहां संसाधनों की भारी कमी है, जो दिख रहा है. शेल्टर पाने को लेकर कई बार लोगों के बीच झगड़े की भी नौबत आ जाती है.
एक टेंट में अपने छह बच्चों के साथ बैठे सैयद रहमान कहते हैं, "हम एक सप्ताह से ठीक से सो नहीं पाए हैं. पाकिस्तान छोड़ने से एक रात पहले हम सो नहीं सके. यहां आने के बाद भी तीन या चार दिनों से हम सो नहीं पाए."
दूसरी पीढ़ी के शरणार्थी सैयद का जन्म और उनकी परवरिश पाकिस्तान की है. वो कहते हैं कि उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में कभी क़दम नहीं रखा था.
वो कहते हैं, "मैं पूरी ज़िंदगी पाकिस्तान में रहा हूं. मेरी शादी भी यहीं हुई. अब मैं क्या करूं?"
कैंप में तालिबान नियुक्त फ़ाइनांस कमेटी के सदस्य हिदायतुल्लाह याद शिनवारी के अनुसार, लौटने वालों की मदद के लिए उन्हें 4,000 से 10,000 अफ़ग़ानी मुद्रा (45 से 140 डॉलर) दी जा रही है.
लेकिन खाली हाथ पहुंचने वाले परिवारों के लिए यह चंद दिनों का ही ख़र्च है.
अस्थाई क्लीनिक में रोज़ाना 1500 मरीज़ों का इलाज़ होता है. डॉक्टरों के सामने कुपोषण, थकान और मानसिक सदमे के मामले अधिक आ रहे हैं.
इस सामूहिक निर्वासन ने पहले से ही ख़स्ताहाल आधारभूत ढांचे वाले अफ़ग़ानिस्तान पर दबाव और बढ़ा दिया है.
क़रीब 4.5 करोड़ की आबादी वाले इस मुल्क़ की अर्थव्यवस्था संकट में है और ऊपर से उसे लाखों और लोगों को अपने यहां लेने के लिए कहा जा रहा है. इनमें से अधिकांश के पास न तो पैसा है, न घर और ना ही कोई निश्चित भविष्य.
2021 में जबसे तालिबान ने सत्ता पर कब्ज़ा किया है, उसने ये दिखाने की कोशिश की है कि सबकुछ उसके नियंत्रण में है, लेकिन अधिकारी भी मानते हैं कि हालात मुश्किल हैं.
तोरखम क्रॉसिंग पर तालिबान सरकार के शरणार्थी मामलों के प्रमुख बख़्त जमाल गौहर कहते हैं, "हमने अधिकांश समस्याएं सुलझा दी हैं, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में लोगों के आने से समस्या भी बढ़ रही है. ये लोग दशकों पहले अपनी संपत्ति छोड़कर चले गए थे. इन 20 सालों की जंग में बहुत से लोगों के घर भी नष्ट हो चुके हैं."
अफ़ग़ानिस्तान में मानवाधिकार मामलों की संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत रोज़ा ओटुनबाएवा ने पाकिस्तान से इस निर्वासन पर रोक लगाने का आग्रह किया है. उन्होंने महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा का हवाला दिया है.
लौटने वालों में से कुछ लोगों के पास यूएन रेफ़्यूजी एजेंसी (यूएनएचसीआर) के दस्तावेज़ भी हैं, जो उन लोगों को दिए जाते हैं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय संरक्षण की ज़रूरत होती है.
लेकिन पाकिस्तान ने 1951 की शरणार्थी संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं और अपने यहां रहने वाले अफ़ग़ानों को वो अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अनुसार शरणार्थी नहीं मानता.

दशकों तक पाकिस्तान अफ़ग़ान शरणार्थियों को अपने यहां लेता आया है लेकिन सरकार का कहना है कि अब वह और अधिक लोगों को नहीं ले सकता. इसके लिए उसने राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक सुविधाओं पर दबाव का हवाला दिया है.
पाकिस्तान सरकार का कहना है कि यह नीति उन सभी देशों के नागरिकों पर लागू है जिनके पास दस्तावेज़ नहीं हैं.
यूएनएचसीआर के मुताबिक़, पाकिस्तान में क़रीब 35 लाख अफ़ग़ान नागरिक रह रहे हैं. इनमें वो सात लाख लोग भी शामिल हैं जो 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान पलायन कर गए थे.
संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि इनमें से आधे लोगों के पास कोई दस्तावेज नहीं है और बाकी लोगों के दस्तावेज अब वैध नहीं रहे.
हाल के समय में सीमा पर दोनों देशों के सुरक्षा बलों के बीच झड़पें बढ़ने से तनाव भी बढ़ा है.
पाकिस्तान इसके लिए अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद चरमपंथियों को ज़िम्मेदार ठहराता है, जबकि तालिबान सरकार इसका खंडन करती है.
भोजन और आसरे के लिए संघर्ष के अलावा बहुत से लोगों के मन में महिलाओं और लड़कियों के भविष्य को लेकर डर है.
तालिबान अधिकारियों की कड़ी निगरानी में महिलाएं खुलकर बात करने में असहज महसूस करती हैं.
तीन बेटियों के पिता सालेह चिंतित हैं कि तालिबान शासन में उनकी बेटियों की ज़िंदगी कैसी होगी.
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में उनकी बेटियां स्कूल जाती थीं लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में 12 साल से अधिक उम्र की लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध है.
उन्होंने मुझसे कहा, "मैं चाहता हूं कि मेरे बच्चे पढ़ें. मैं नहीं चाहता कि स्कूल में बिताए उनके साल यूं ही बर्बाद हो जाएं."
वो कहते हैं, "यहां एक इस्लामी सरकार है. उन्हें लड़के और लड़कियों दोनों की शिक्षा की इजाज़त देनी चाहिए. उन्हें वापस आने वाले और पहले से यहां रह रहे अफ़ग़ानों के लिए स्कूल खोलना चाहिए. हर एक व्यक्ति को शिक्षा पाने का अधिकार है."

हालांकि विस्थापन की निराशा के बीच राहत का एक दुर्लभ पल भी आया. तीन दिन बाद अमीना को उनके बेटे मिल गए.
अमीना के चेहरे पर खुशी साफ़ झलक रही थी. उन्होंने मुझसे कहा, "मैं अब बहुत ख़ुश हूं." उन्हें अपनी रीढ़ के दर्द की दवा भी मिल गई थी.
उनके एक बेटे एवाज़ ख़ान ने कहा, "हम एक शेल्टर में थे. हमारे बच्चों ने हमें पहचान लिया और हम एक दूसरे की ओर दौड़ पड़े. जिस पल मैंने अपने बच्चों को देखा, वो मेरी ज़िंदगी का सबसे ख़ुशनुमा पल था."
उनका इंतज़ार तो ख़त्म हो गया, लेकिन ज़िंदगी का उनका सफर और इस सफर की अनिश्चितता अभी जारी है.
एक दशक पहले अमीना काबुल के दक्षिण में जिस जगह को छोड़कर चली गई थीं, अब उन्हें वहीं लौटना है. लेकिन जिन कारणों से उन्हें अपना घर बार छोड़ना पड़ा था, उनमें कुछ अभी भी बने हुए हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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