पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद, दोनों देशों के बीच बढ़े नाटकीय तनाव के बीच भारत सरकार ने 1960 की सिंधु जल संधि को निलंबित या स्थगित करने का फैसला किया है। पहलगाम हमले में 26 नागरिकों की मौत हुई है। भारत के इस कदम से पूरे क्षेत्र में चिंता पैदा कर दी है। यह ऐसी संधि है जो बीते छह दशकों से अधिक समय तक युद्धों और कूटनीतिक नाकामियों के बावजूद बनी रही है, और इसे स्थगित किया जाना सबूत है कि दोनों देशों के बीच न सिर्फ विश्वास टूट चुका है बल्कि बल्कि भारत की क्षेत्रीय स्थिति में संभावित रूप से जोखिम भरे बदलाव का संकेत भी है।
यह कोई पहला मौका नहीं है जब सिंधु जल संधि पर राजनीतिक खतरा मंडराया है। इससे पहले 2016 में उरी आंतकी हमले के बाद भी यह मांग उठी थी कि भारत सिंधु जल संधि को हथियार की तरह इस्तेमाल करे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक जनसभा में कहा था कि ‘खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते...।’ लेकिन उन्होंने इसका इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन 2025 की घटना ने इस एहतियात को खत्म कर दिया है और भारत ने औपचारिक तौर पर पाकिस्तान को बता दिया है कि जब तक पाकिस्तान सीमापार आतंकवाद की मदद करना बंद नहीं करता, तब तक भारत सिंधु जलसंधि को स्थगित रखेगा।
जैसी कि अपेक्षा थी, पाकिस्तान ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया जताई है। भारत के ऐलान के अगले ही दिन पाकिस्तान ने शिमला समझौता स्थगित करने का ऐलान कर दिया। शिमला समझौता दोनों देशों के बीच 1972 में हुई। पाकिस्तान ने कहा कि सिंधु जल संधि के तहत भारत अगर पाकिस्तान को दिए जाने वाले पानी पर रोक लगाता है तो इसे ‘युद्ध की कार्रवाई’ माना जाएगा। इतना ही नहीं पाकिस्तान ने यहां तक संकेत दिया कि प्रतिक्रिया में परमाणु हथियारों का उपयोग शामिल हो सकता है। पाकिस्तान ने व्यापार, हवाई क्षेत्र समझौतों सहित सभी द्विपक्षीय समझौतों को निलंबित करने की भी घोषणा की, और सिख तीर्थयात्रियों को छोड़कर भारतीय नागरिकों को जारी किए गए सभी दक्षेस (SAARC) वीजा छूट योजना के तहत दिए गए वीजा को रद्द कर दिया।
भले ही भारत का यह कदम कुछ लोगों की भावनाओं की पूर्ति करता हो, और संभवतः घरेलू स्तर पर राजनीतिक लाभ भी पहुंचा सकता हो, लेकिन बीजेपी सरकार का यह फैसला रणनीतिक, कानूनी और मानवीय दृष्टिकोण से कई महत्वपूर्ण सवाल उठाता है। इस प्रतिक्रिया से मीडिया में सनसनी और सार्वजनिक आक्रोश को बढ़ावा तो मिलता है, लेकिन इसमें रणनीतिक दूरदर्शिता का अभाव है। यह कदम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के उच्च नैतिक आधार को भी नुकसान पहुंचाता है, जहां इसे लंबे समय से उसे पाकिस्तानी उकसावे के सामने यथास्थितिवादी शक्ति के रूप में देखा जाता रहा है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि सिंधु जलसंधि का निलंबन कानूनी रूप से अस्पष्ट और कूटनीतिक रूप से खतरनाक है। इस संधि में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि इसे निरस्त नहीं किया जा सकता, और उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना भारत का एकतरफा निलंबन, अंतर्राष्ट्रीय कानून को अनदेखा करता है और <'पैक्टा सुन सर्वादु'> (समझौतों को रखा जाना चाहिए) के मूल सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
भले ही भारत हालात में बुनियादी बदलाव का दावा करते हुए वियेना कन्वेंशन के अनुच्छेद 62 का हवाला दे, लेकिन इस संधि को निलंबित करने के लिए आधार बहुत ही ठोस होने चाहिए। इसके अलावा, संधि पर विश्व बैंक द्वारा सह-हस्ताक्षर किए गए हैं, जिस कारण यह संधि अपने आप में अनोखी अंतरराष्ट्रीय हैसियत की है। भारत सरकार का यह कदम न केवल पाकिस्तान को स्थायी मध्यस्थता न्यायालय के माध्यम से संभावित मध्यस्थता सहित विवाद समाधान तंत्र को सक्रिय करने के लिए आमंत्रित करने की छूट देता है, बल्कि उस मामले का अंतर्राष्ट्रीयकरण भी करता है जिसे नई दिल्ली लंबे समय से एक द्विपक्षीय मुद्दे के रूप में देखना पसंद करता रहा है।
सिंधु जलसंधि वैसे कभी भी दुरुस्त नहीं थी। इस संधि के तहत सिंधु सहकारी तरीके से पानी के बंटवारे के बजाए सिंधु बेसिन को प्रभावी ढंग से विभाजित कर दिया। लेकिन अपनी खामियों के बावजूद, यह दो परमाणु शक्ति वाले पड़ोसियों के बीच कुछ स्थायी द्विपक्षीय समझौतों में से एक रहा है। 1965 और 1971 के युद्धों और कारगिल संघर्ष के दौरान इसका अस्तित्व एक कूटनीतिक साधन के रूप में इसकी ताकत को रेखांकित करता है। विश्व बैंक ने इसे लगातार अंतरराष्ट्रीय जल कूटनीति में एक दुर्लभ सफलता के रूप में पेश किया है।
फिर भी, संधि जलवायु परिवर्तन, बढ़ती आबादी या विकसित हो रही जलविद्युत आवश्यकताओं के साथ तालमेल नहीं रख पाई है। सिंधु प्रणाली के अन्य तटवर्ती इलाकों -अफगानिस्तान और चीन को शामिल करने वाला एक आधुनिक ढांचा बहुत समय से अटका हुआ है। लेकिन संधि को संशोधित करने के लिए सहयोग की आवश्यकता है, न कि दबाव की।
भारत में कुछ लोग पाकिस्तान को दिए जाने वाले पानी आपूर्ति को रोकने के लिए पश्चिमी नदियों- सिंधु, झेलम और चिनाब पर भंडारण सुविधाओं (यानी बांध) के निर्माण की मांग कर रहे हैं। लेकिन कहना आसान होता है, और करना मुश्किल: भारत के पास इन नदियों पर आवश्यक भंडारण बुनियादी ढांचे की कमी है। और अगर वह ऐसी सुविधाएं बनाने की कोशिश करता है, तो उसे दो बुनियादी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
सबसे पहले, हिमालय की खड़ी ढलानों के कारण इन नदियों के पानी को भारतीय मुख्य भूमि की ओर मोड़ना लगभग असंभव है। कश्मीर घाटी, जहां से ये नदियाँ बहती हैं, उसमें पहले से ही कृषि के लिए प्राकृतिक जल जरूत से ज्यादा है, जिसके लिए लिफ्ट सिंचाई की आवश्यकता होती है – यानी पानी को पंपों का उपयोग करके ऊपर उठाना पड़ता है। इसलिए अगर भारत बाँध भी बनाता है, तो वह अतिरिक्त पानी का करेगा क्या?
दूसरा, कश्मीर में बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा परियोजनाएं आतंकवादियों के लिए आसान लक्ष्य हैं। पाकिस्तान के साथ बढ़ते तनाव से ये जोखिम और बढ़ जाते हैं। रणनीतिक बढ़त हासिल करने के बजाय, भारत नई कमज़ोरियां पैदा कर सकता है।
इसके अलावा, निलंबन के बावजूद, भारत के पास पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए सिर्फ़ दो सीमित विकल्प हैं। वह बाढ़ और बढ़ते जलस्तर के डेटा को साझा करने से इनकार कर सकता है - जो मानसून के मौसम में डाउनस्ट्रीम योजना के लिए महत्वपूर्ण है - और वह अगस्त तक इंतज़ार करने के बजाय पाकिस्तान के गर्मी के मौसम के दौरान भंडारण क्षेत्रों को खाली करके और उन्हें फिर से भरकर जलाशय संचालन में बदलाव कर सकता है। इन कार्रवाइयों से पाकिस्तानी कृषि, खास तौर पर पंजाब में, कुछ मौसमी व्यवधान पैदा हो सकते हैं, लेकिन इसका असर मामूली और अस्थायी होने की संभावना है। अगर यह कदम दबाव डालने वाले औजारों के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं, इनका असर बहुत ज्यादा और देर तक नहीं होने वाला।
पाकिस्तान की तीखी प्रतिक्रिया- जिसमें शिमला समझौते को निलंबित करना और व्यापक राजनयिक कमी शामिल है – उससे भी भारत का घरेलू मकसद पूरा होता है। बिना राजनीतिक वैधता की पाकिस्तानी सेना के समर्थनसे चलने वाली सरकार राष्ट्रवाद की भावना भड़काने और आंतरिक संकटों को बाहरी दखल दिखाकर उनका फायदा उठा सकती है। भारत के साथ तनाव से पाक सरकार और सेना को राहत मिलती है जो अपने नागरिकों का ध्यान शासन की नाकामियों और अर्थव्यवस्था में गिरावट से हटाने में कामयाब होगी।
इससे भी ज़्यादा ख़तरनाक बात यह है कि सीमा पार जल बंटवारे का राजनीतिकरण करके बीजेपी सरकार ने भानुमती का पिटारा खोल दिया है। यारलुंग त्सांगपो (ब्रह्मपुत्र) का ऊपरी तटवर्ती देश चीन, भविष्य में भारत के साथ किसी भी टकराव में इसी तर्क का हवाला दे सकता है, जिससे संभावित रूप से पूर्वोत्तर भारत में पानी के प्रवाह में कटौती या उसकी राह बदलने का काम हो सकता है। इस तरह यह फैसला उसी तरह के जल शस्त्रीकरण को वैध बनाता है जिसका भारत लंबे समय से विरोध करता रहा है।
इस तरह के व्यवधान के पर्यावरणीय और मानवीय नतीजों को कम करके नहीं आंका जा सकता। पानी के कम प्रवाह से नाजुक सिंधु डेल्टा को नुकसान हो सकता है, जो पहले से ही कई कारणों से कमजोर हो रहा है। जलाशयों के अचानक संचालन से बाढ़ भी आ सकती है, जिससे हज़ारों लोग विस्थापित हो सकते हैं और कृषि भूमि नष्ट हो सकती है। पाकिस्तान की खाद्य सुरक्षा-जो सिंधु सिंचाई पर बहुत अधिक निर्भर है- ख़तरे में पड़ जाएगी, जिससे आंतरिक अशांति और मानवीय पीड़ा बढ़ जाएगी।
पानी को सजा देने के साधन के रूप में इस्तेमाल करने के बजाय, भारत को एकीकृत बेसिन प्रबंधन की दिशा में प्रयासों की अगुवाई करनी चाहिए। मौजूदा संधि ढांचे में सहयोग के लिए लचीलापन और प्रोत्साहन की कमी है। विश्व बैंक द्वारा प्रायोजित अबू धाबी वार्ता, जिसमें मैंने 2006 में योगदान दिया था, उसमें भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और चीन को शामिल करते हुए एक व्यापक बेसिन-व्यापी सहकारी ढांचे की कल्पना की गई थी। इस तरह की बहुपक्षीय भागीदारी जलवायु असुरक्षा और क्षेत्रीय अस्थिरता का एकमात्र व्यवहारिक दीर्घकालिक समाधान बनी हुई है।
भारत की बीजेपी सरकार को अपने पड़ोस पर पड़ने वाले व्यापक प्रभावों पर भी विचार करना चाहिए। बांग्लादेश, नेपाल और भूटान, जिनके साथ भारत महत्वपूर्ण नदी प्रणालियों को साझा करता है, इसे भारत की एकतरफा कार्रवाई करने की इच्छा के संकेत के रूप में व्याख्या कर सकते हैं। भविष्य की क्षेत्रीय वार्ताएं - विशेष रूप से कोशी और गंडक नदियों पर नेपाल और गंगा और तीस्ता पर बांग्लादेश के साथ - अब विश्वास की कमी का साया रहेगा।
सिंधु जल संधि को स्थगित करना जल्दबाजी में लिया गया कदम है, जिससे बीजेपी को कुछ समय के लिए राजनीतिक लाभ मिल सकता है, लेकिन इससे भारत को दीर्घकालिक रणनीतिक नुकसान होगा। यह एक नाजुक शांति व्यवस्था को अस्थिर कर सकता है, महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे को खतरे में डाल सकता है, अंतरराष्ट्रीय निंदा को आमंत्रित कर सकता है और चीन के साथ खतरनाक भू-राजनीतिक मोर्चा खोल सकता है। इससे सीमा पार एक असुरक्षित और अलोकप्रिय शासन के हाथों में खेलने का जोखिम भी है।
(अशोक स्वैन स्वीडन के उप्साला विश्वविद्यालय में शांति और संघर्ष अनुसंधान के प्रोफेसर और अंतर्राष्ट्रीय जल सहयोग पर यूनेस्को अध्यक्ष हैं।)You may also like
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