कैबिनेट में फेरबदल सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन तमिलनाडु की DMK सरकार को जिन हालात में अपने दो मंत्रियों - वी सेंथिल बालाजी और के पोनमुडी का इस्तीफा लेना पड़ा, वह बिल्कुल सामान्य नहीं। सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाई कोर्ट की सख्ती व विपक्ष के दबाव के कारण पिछले कुछ दिनों से राज्य सरकार बेहद असहज स्थिति में थी। ऐसे में स्टालिन सरकार को मंत्रियों के इस्तीफों से थोड़ी राहत भले मिल गई हो, लेकिन वह जवाबदेही से बच नहीं सकती। इस अप्रिय स्थिति के लिए सरकार खुद ही जिम्मेदार है। कोर्ट की फटकार: सेंथिल बालाजी मनी लॉन्ड्रिंग के एक केस का सामना कर रहे हैं, 15 महीने जेल में भी रह चुके हैं। उन पर जब आरोप लगा, तब वह मंत्री थे। गिरफ्तारी हुई और जेल गए, तब भी मंत्री बने रहे। यहां तक कि बिना पोर्टफोलियो के उन्हें पद पर बनाए रखा गया। बाद में उन्होंने इस्तीफा तो जरूर दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के चार दिनों के भीतर ही दोबारा कैबिनेट में शामिल हो गए। इसी बात पर शीर्ष अदालत ने उन्हें फटकार लगाई थी। केस पर असर: सेंथिल बालाजी का मामला राजनेताओं के पद से चिपके रहने का उदाहरण है। ऐसे नेताओं के लिए शुचिता और पारदर्शिता बस कहने की बात है, करने की नहीं। यहां जिम्मेदारी स्टालिन सरकार की भी है, जिसने जांच का सामना कर रहे आरोपी को कैबिनेट में जगह दी। मंत्री जैसे प्रभावशाली और ताकतवर पद पर बैठकर कोई केस को प्रभावित कर सकता है - यह इतनी बड़ी बात तो नहीं, जिसे समझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ता। शीर्ष अदालत ने जब पद और जमानत में से एक का विकल्प रखा, तब जाकर बालाजी से इस्तीफा लिया गया। विश्वसनीयता पर सवाल: पोनमुडी का मामला भी ऐसा ही है। उनकी आपत्तिजनक टिप्पणियों को लेकर लगातार विवाद बना हुआ है। इसके बाद भी वह कैबिनेट में थे, जब तक कि मद्रास हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर उनसे जवाब तलब नहीं कर लिया। ये दोनों ही मामले जनप्रतिनिधियों के प्रति जनता के भरोसे पर चोट करने वाले हैं। क्या छोटी-बड़ी हर चीज में न्यायपालिका के दखल के बाद ही सही कदम उठाया जाएगा? अगर ऐसा होना है, तो सरकारों की अपनी जवाबदेही क्या है? सरकारों के लिए सीख: देश में हाल में न्यायपालिका बनाम विधायिका की अलोकप्रिय बहस शुरू हुई थी। कई आपत्ति इस बात पर उठी कि अदालतों को विधायिका के हर मामले में नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन, तमिलनाडु की घटना से जाहिर है कि कई बार सरकारें राजनीतिक दबाव में होती हैं और सियासत के आगे नैतिकता कमजोर पड़ जाती है। केवल तमिलनाडु ही नहीं, सभी सरकारों को इस मामले को एक सबक के रूप में लेना चाहिए ताकि बाद में शर्मिंदगी न उठानी पड़े।
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